दशरथ उवाच:
प्रसन्नो यदि मे सौरे ! एकश्चास्तु वरः परः ॥

रोहिणीं भेदयित्वा तु न गन्तव्यं कदाचन् ।
सरितः सागरा यावद्यावच्चन्द्रार्कमेदिनी ॥

याचितं तु महासौरे ! नऽन्यमिच्छाम्यहं ।
एवमस्तुशनिप्रोक्तं वरलब्ध्वा तु शाश्वतम् ॥

प्राप्यैवं तु वरं राजा कृतकृत्योऽभवत्तदा ।
पुनरेवाऽब्रवीत्तुष्टो वरं वरम् सुव्रत ॥

दशरथकृत शनि स्तोत्र:
नम: कृष्णाय नीलाय शितिकण्ठ निभाय च ।
नम: कालाग्निरूपाय कृतान्ताय च वै नम: ॥1॥

नमो निर्मांस देहाय दीर्घश्मश्रुजटाय च ।
नमो विशालनेत्राय शुष्कोदर भयाकृते ॥2॥

नम: पुष्कलगात्राय स्थूलरोम्णेऽथ वै नम: ।
नमो दीर्घाय शुष्काय कालदंष्ट्र नमोऽस्तु ते ॥3॥

नमस्ते कोटराक्षाय दुर्नरीक्ष्याय वै नम: ।
नमो घोराय रौद्राय भीषणाय कपालिने ॥4॥

नमस्ते सर्वभक्षाय बलीमुख नमोऽस्तु ते ।
सूर्यपुत्र नमस्तेऽस्तु भास्करेऽभयदाय च ॥5॥

अधोदृष्टे: नमस्तेऽस्तु संवर्तक नमोऽस्तु ते ।
नमो मन्दगते तुभ्यं निस्त्रिंशाय नमोऽस्तुते ॥6॥

तपसा दग्ध-देहाय नित्यं योगरताय च ।
नमो नित्यं क्षुधार्ताय अतृप्ताय च वै नम: ॥7॥

ज्ञानचक्षुर्नमस्तेऽस्तु कश्यपात्मज-सूनवे ।
तुष्टो ददासि वै राज्यं रुष्टो हरसि तत्क्षणात् ॥8॥

देवासुरमनुष्याश्च सिद्ध-विद्याधरोरगा: ।
त्वया विलोकिता: सर्वे नाशं यान्ति समूलत: ॥9॥

प्रसाद कुरु मे सौरे ! वारदो भव भास्करे ।
एवं स्तुतस्तदा सौरिर्ग्रहराजो महाबल: ॥10॥

दशरथ उवाच:
प्रसन्नो यदि मे सौरे ! वरं देहि ममेप्सितम् ।
अद्य प्रभृति-पिंगाक्ष ! पीडा देया न कस्यचित् ॥

दशरथकृत शनि स्तोत्र

दशरथ उवाच:

प्रसन्नो यदि मे सौरे ! एकश्चास्तु वरः परः ॥

रोहिणीं भेदयित्वा तु न गन्तव्यं कदाचन्।
सरितः सागरा यावद्यावच्चन्द्रार्कमेदिनी।

याचितं तु महासौरे ! नऽन्यमिच्छाम्यहं।
एवमस्तु शनिप्रोक्तं वरलब्ध्वा तु शाश्वतम्।

प्राप्यैवं तु वरं राजा कृतकृत्योऽभवत्तदा।
पुनरेवाऽब्रवीत्तुष्टो वरं वरम् सुव्रत।

दशरथ उवाच का भावार्थ:

दशरथ राजा शनिदेव से विनम्रता के साथ कहते हैं, “हे सौरे (शनिदेव), यदि आप मुझ पर प्रसन्न हैं, तो मुझे एक वरदान दीजिए। आप रोहिणी नक्षत्र को भेदकर (अशुभ प्रभाव डालकर) कभी आगे न बढ़ें। जब तक नदियाँ और समुद्र हैं, जब तक सूर्य और चंद्रमा हैं, पृथ्वी बनी रहे, तब तक यह स्थिति बनी रहे। मैं आपसे यही प्रार्थना करता हूँ, अन्य किसी चीज़ की इच्छा नहीं है।”

See also  शनि प्रदोष व्रत कथा (Shani Pradosh Vrat Katha)

शनिदेव ने दशरथ की यह प्रार्थना स्वीकार की और उन्हें शाश्वत वरदान दिया। राजा दशरथ यह वरदान पाकर प्रसन्न और संतुष्ट हो गए।

दशरथकृत शनि स्तोत्र:

नम: कृष्णाय नीलाय श्लोक का अर्थ:

नम: कृष्णाय नीलाय शितिकण्ठ निभाय च। नम: कालाग्निरूपाय कृतान्ताय च वै नम:॥

इस श्लोक में दशरथ शनिदेव का नीलवर्ण (गहरे नीले रंग) और कृष्णरूप का वर्णन करते हुए प्रणाम करते हैं। शनिदेव को कालाग्नि (प्रलय के समय का विनाशक अग्नि) और कृतांत (समाप्ति का समय) के रूप में भी प्रणाम किया गया है।

नमो निर्मांस देहाय श्लोक का अर्थ:

नमो निर्मांस देहाय दीर्घश्मश्रुजटाय च। नमो विशालनेत्राय शुष्कोदर भयाकृते॥

यहाँ शनिदेव के निर्मांस (मांस रहित) शरीर का वर्णन किया गया है। उनकी दीर्घ (लंबी) दाढ़ी और जटाओं का उल्लेख किया गया है। साथ ही विशाल नेत्र और शुष्क उदर (पेट) वाले भयावह रूप का भी वर्णन है, जिससे लोग भयभीत रहते हैं।

नम: पुष्कलगात्राय श्लोक का अर्थ:

नम: पुष्कलगात्राय स्थूलरोम्णेऽथ वै नम:। नमो दीर्घाय शुष्काय कालदंष्ट्र नमोऽस्तु ते॥

इस श्लोक में शनिदेव के पुष्ट शरीर, घने रोम (बाल) और उनके लंबे एवं शुष्क शरीर का वर्णन किया गया है। साथ ही, उनकी कालदंष्ट्र (काल रूपी दाँत) का भी उल्लेख है, जो भयावह और सर्वग्रासी है।

नमस्ते कोटराक्षाय श्लोक का अर्थ:

नमस्ते कोटराक्षाय दुर्नरीक्ष्याय वै नम:। नमो घोराय रौद्राय भीषणाय कपालिने॥

यहाँ शनिदेव के कोटराक्ष (खोखले, भयावह आँखों) और दुर्नरीक्ष्य (जिनका देखना कठिन है) रूप का वर्णन किया गया है। घोर, रौद्र, और भीषण रूप के साथ ही उनके कपालधारी (खोपड़ी रखने वाले) रूप का भी उल्लेख है।

नमस्ते सर्वभक्षाय श्लोक का अर्थ:

नमस्ते सर्वभक्षाय बलीमुख नमोऽस्तु ते। सूर्यपुत्र नमस्तेऽस्तु भास्करेऽभयदाय च॥

See also  शनि चालीसा (Shani Chalisa) PDF - Download

इस श्लोक में शनिदेव को सर्वभक्षी (सब कुछ खाने वाले), बलीमुख (विशाल मुँह वाले) और सूर्य के पुत्र के रूप में प्रणाम किया गया है। उनका भास्कर रूप और अभय देने वाला स्वरूप भी इस श्लोक में समर्पित है।

अधोदृष्टे: नमस्ते श्लोक का अर्थ:

अधोदृष्टे: नमस्तेऽस्तु संवर्तक नमोऽस्तु ते। नमो मन्दगते तुभ्यं निस्त्रिंशाय नमोऽस्तुते॥

शनिदेव की अधोदृष्टि (नीचे देखने वाली दृष्टि) का वर्णन किया गया है। उन्हें संवर्तक (विनाशक) कहा गया है और उनकी मन्दगति (धीरे चलने वाले) स्वरूप को नमन किया गया है।

तपसा दग्ध-देहाय श्लोक का अर्थ:

तपसा दग्ध-देहाय नित्यं योगरताय च। नमो नित्यं क्षुधार्ताय अतृप्ताय च वै नम:॥

यहाँ शनिदेव के तपस्या से जले हुए शरीर और सदैव योग में लीन रहने वाले स्वरूप का वर्णन किया गया है। साथ ही, उन्हें नित्य क्षुधार्त (सदा भूख से पीड़ित) और अतृप्त (जो कभी संतुष्ट नहीं होते) कहा गया है।

ज्ञानचक्षुर्नमस्ते श्लोक का अर्थ:

ज्ञानचक्षुर्नमस्तेऽस्तु कश्यपात्मज-सूनवे। तुष्टो ददासि वै राज्यं रुष्टो हरसि तत्क्षणात्॥

इस श्लोक में शनिदेव को ज्ञानचक्षु (ज्ञान की दृष्टि वाले) और कश्यप ऋषि के पुत्र के रूप में नमन किया गया है। शनिदेव प्रसन्न होते हैं तो राज्य प्रदान करते हैं, और क्रोधित होते हैं तो क्षणभर में सब कुछ छीन लेते हैं।

देवासुरमनुष्याश्च श्लोक का अर्थ:

देवासुरमनुष्याश्च सिद्ध-विद्याधरोरगा:। त्वया विलोकिता: सर्वे नाशं यान्ति समूलत:॥

शनिदेव की दृष्टि का वर्णन करते हुए कहा गया है कि चाहे देवता हों, असुर हों, मनुष्य हों, सिद्ध, विद्याधर या नाग हों, यदि शनिदेव की दृष्टि उन पर पड़ती है, तो वे नाश को प्राप्त होते हैं।

प्रसाद कुरु मे सौरे श्लोक का अर्थ:

प्रसाद कुरु मे सौरे ! वारदो भव भास्करे। एवं स्तुतस्तदा सौरिर्ग्रहराजो महाबल:॥

See also  श्री शनि अष्टोत्तर-शतनाम-नामावली (Shani Ashtottara Shatnam Namavali)

दशरथ शनिदेव से कहते हैं, “हे सौरे! मुझ पर प्रसन्न होइए और मुझे वरदान दीजिए।” शनिदेव की स्तुति के बाद वे प्रसन्न होकर राजा दशरथ को वरदान प्रदान करते हैं।

दशरथ उवाच का अंत:

दशरथ ने शनिदेव से वरदान प्राप्त करने के बाद फिर से कहा, “हे शनिदेव! अब से पिंगलाक्ष (लाल-पीली आँखों वाले शनिदेव) किसी को पीड़ा न दें।”

दशरथकृत शनि स्तोत्र (Dashratha Shani Sotra) PDF Download